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Brave Rajput JaitSingh Chundawat (जैतसिंह चुण्डावत)
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जैतसिंह चुण्डावत- मुक़ाबला जीतने हेतु इस वीर ने स्वयं अपना सिर काटकर फेंका था दुर्ग में
पूरा राजपूत इतिहास ऐसे अनगिनत वीरता के प्रसंगों से भरा पड़ा है जिनको सुनने से किसी भी व्यक्ति के रोंगटे खड़े हो सकते है। ऐसा ही एक हाड़ी रानी का किस्सा हमने आपको बताया था जिसने स्वयं अपना शीश काटकर पति को निशानी के तौर पर रण भूमि में भिजवा दिया था ताकि वो अपने कर्त्वय से विमुख न हो। ताकि वो अपने कर्त्वय से विमुख न हो।
आज हम आपको राजपूती वीरता का एक और किस्सा बताएंगे जो की हाड़ी रानी के किस्से की तरह अकल्पनीय है। इस किस्से में मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह की सेना के दो राजपूती दस्तों (रेजिमेंट) “चुण्डावत” और “शक्तावत” में अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए एक मुक़ाबला होता है जो इतिहास में राजपूतों की अपनी आन, बान और शान के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देने वाली किवदंती का अमिट उदाहरण बन जाता है। तो आइए जानते है क्या है यह प्रसंग-
Brave Rajput Jait singh chundawat
मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह की सेना में ,विशेष पराक्रमी होने के कारण “चुण्डावत” खांप के वीरों को ही “हरावल”(युद्ध भूमि में अग्रिम पंक्ति) में रहने का गौरव प्राप्त था व वे उसे अपना अधिकार समझते थे। किन्तु “शक्तावत” खांप के वीर राजपूत भी कम पराक्रमी नहीं थे। उनके हृदय में भी यह अरमान जागृत हुआ कि युद्ध क्षेत्र में मृत्यु से पहला मुकाबला हमारा होना चाहिए। अपनी इस महत्वाकांक्षा को महाराणा अमरसिंह के समक्ष रखते हुए शक्तावत वीरों ने कहा कि हम चुंडावतों से त्याग,बलिदान व शौर्य में किसी भी प्रकार कम नहीं है। अत: हरावल में रहने का अधिकार हमें मिलना चाहिए।
उन्टाला दुर्ग में प्रवेश
मृत्यु से पाणिग्रहण होने वाली इस अदभूत प्रतिस्पर्धा को देखकर महाराणा धर्म-संकट में पड़ गए | किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर हरावल में रहने का अधिकार दिया जाय ? इसका निर्णय करने के लिए उन्होंने एक कसौटी तय की ,जिसके अनुसार यह निश्चित किया गया कि दोनों दल उन्टाला दुर्ग (जो कि बादशाह जहाँगीर के अधीन था और फतेहपुर का नबाब समस खां वहां का किलेदार था) पर प्रथक-प्रथक दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे व जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश करेगा उसे ही हरावल में रहने का अधिकार दिया जायेगा।
बस ! फिर क्या था ? प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए मौत को ललकारते हुए दोनों ही दलों के रण-बांकुरों ने उन्टाला दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। शक्तावत वीर दुर्ग के फाटक के पास पहुँच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चुंडावत वीरों ने समीप ही दुर्ग की दीवार पर कबंध डालकर उस पर चढ़ने का प्रयास शुरू किया। इधर शक्तावतों ने जब दुर्ग के फाटक को तोड़ने के लिए फाटक पर हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढाया तो फाटक में लगे हुए तीक्षण शूलों से सहम कर हाथी पीछे हट गया।
बल्लू शक्तावत की वीरता
यह देख शक्तावतों का सरदार बल्लू शक्तावत ,अदभूत बलिदान का उदहारण प्रस्तुत करते हुए फाटक के शूलों पर सीना अड़ाकर खड़ा हो गया व महावत को हाथी से अपने शरीर पर टक्कर दिलाने को कहा जिससे कि हाथी शूलों के भय से पीछे न हटे। एक बार तो महावत सहम गया ,किन्तु फिर “वीर बल्लू” के मृत्यु से भी भयानक क्रोधपूर्ण आदेश की पालना करते हुए उसने हाथी से टक्कर मारी जिसके परिणामस्वरूप फाटक में लगे हुए शूल वीर बल्लू शक्तावत के सीने में बिंध गए और वह वीर-गति को प्राप्त हो गया। किन्तु उसके साथ ही दुर्ग का फाटक भी टूट गया।
जैतसिंह चुण्डावत की वीरता
दूसरी और चूंडावतों के सरदार जैतसिंह चुण्डावत ने जब यह देखा कि फाटक टूटने ही वाला है तो उसने पहले दुर्ग में पहुँचने की शर्त जितने के उद्देश्य से अपने साथी को कहा कि “मेरा सिर काटकर दुर्ग की दीवार के ऊपर से दुर्ग के अन्दर फेंक दो।” साथी जब ऐसा करने में सहम गया तो उसने स्वयं अपना मस्तक काटकर दुर्ग में फेंक दिया।
फाटक तोड़कर जैसे ही शक्तावत वीरों के दल ने दुर्ग में प्रवेश किया ,उससे पहले ही चुण्डावत सरदार का कटा मस्तक दुर्ग के अन्दर मौजूद था। इस प्रकार चूंडावतों ने अपना हरावल में रहने का अधिकार अदभूत बलिदान देकर कायम रखा।
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